आज सुबह घर से निकला, सोच में डूबा हुआ था की काश तुम यहाँ होती तो कितना अच्छा होता। ऑफिस पहुँचा और यथावत काम करने लगा। रह रह कर तुम्हारी याद आने लगती। आजकल मन भटक ज्यादा रहा था। काम कम और तुम ज्यादा हो गयी थी।
“सर , सर ” की आवाज़ से मेरा ध्यान भटका। यह खोने की नयी आदत न जाने कहाँ से आयी थी। अपना माथा ठनक कर मैंने अपना सारा ध्यान तुम से हटा कर काम पर लगाया। बड़ा मुश्किल होता जा रहा था सब कुछ। लग रहा था जैसे दिमाग में कभी ऐसे ख़्याल आये ही नहीं हैं , फिर गया है बावरा।
जितना संतुलित मैं असल जीवन में था , शायद ही कोई जनता होगा की अंदर कितनी उथल पुथल मची हुई थी पिछले कुछ हफ़्तों से। जैसे अपना दिल वहीं छोड़ आया, तुम्हारे पास।
जैसे जैसे शाम ढलने लगती तुम्हारी याद और सताने लगती। मैं इतनी भीड़, इतने लोग, इतना काम होने के बाद भी तन्हा सा महसूस करता था। तुम्हारे फ़ोन आने का इंतज़ार करता रहता था।
शाम को घर लौटते वक़्त जब बाहर निकलता, तुम्हारा चेहरा देखने को मन करने लगता था , हर चेहरे में तुम्हे ही ढूँढ़ता रहता था। ये फासला सहन नहीं होता था। पता नहीं क्या तुम भी सोचती होंगी मेरे बारे में ? तुम्हे पाने को चाहता था मन , तुमसे दूर भी था , जानता था मिलना मुमकिन नहीं है , बेबस सा था।
कैसे कह दूँ , क्या है मेरे इस दिल में , कहूँ भी न और तुम समझ जाओ। बिना मिले , बिना देखे , बिना सुने मेरी साँसे पढ़ जाओ। कभी किसी से कहा नहीं पर तुमसे कहना चाहता हूँ। पता नहीं तुम समझोगी या नहीं ?
शायद समझती तो होंगी, तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ। दिमाग़ पर भी दिल का कब्ज़ा होने लगा है। दिमाग लगाया बहुत कैसे न कैसे रोक लूँ खुद को , पर नहीं हो पाया। हार गया पहली बार दिल से। अपनी हालत पर बड़ा अफ़सोस होता है तेरे बिन क्या करूँ ? पता नहीं कैसी उदासी थी, की बस अभी तुम दिख जाओ , और ये दिल धड़क उठे , आँखों में तुम्हारा चेहरा है ,फिर भी कैसी तड़प है , तुम्हे देखने की , तुमसे मिलने की , तुम्हारे संग शामें बिताने की।
दिन गुज़रते जा रहे थे , तुम्हारी यादों में।
फिर एक और सुबह आगयी बिन तुम्हारे, ऑफिस आया और जैसे लगा कोई स्वपन देख रहा हूँ। तुम सामने खड़ी थी , थम सा गया एक पल के लिए। क्या तुम ही हो ? सही में मुस्कुराती सी तुम खड़ी थी मेरे सामने, यकीन ही नहीं हुआ। तुम्हारी ओर बढ़ा और तुम सच में थी। समझ न पाया खुश हो जाऊँ या भाव विभोर हो जाऊँ। इतने दिन जुदा रह कर जो प्यार रूपी दर्द इस दिल में तुमने जागृत कर दिया था दिल कर रहा था की बस तुम्हे आगोश में भर लूँ अपने , तुम्हारी जुल्फों की महक रह जाये मुझमे। तुम्हे नज़रों में बसा लेना चाहता था , तुम्हे देखते ही रहना चाहता था और तुम आकर गले लग गयी।
कसकर थाम लिया तुम्हे अपनी बाहों में। और बस थामे रहा , दिल की धड़कने सुनता रहा तुम्हारी। तुम्हारे गालों पर अपना प्रतिबिम्ब अंकित कर जैसे मैं तुम्हे बस अपना बना लेना चाहता था।
तुम्हारी निगाहें बस मुझपर अटकी थी , तुम्हारे होंठ कुछ भी नहीं बोल रहे थे।अपनी निगाहों से ही पूछ लिया मैंने क्या हुआ है तुम्हे? शायद तुम मुझसे भी ज्यादा महसूस कर रही थी इस मनोभाव को , कैसे बयान किया जाये इसे शब्दों में।
बस तेरी मेरी निगाहों की गुफ्तगू है, मैं तेरा हूँ , और तुम मेरी।फिर से खींच लिया तुम्हे अपने आगोश में, खुद को तुम्हे हमेशा दे देने के लिए।