वो थकी हुई घर का दरवाजा खोलने लगी , पर्स में घर की चाभी टटोलते हुए उसने अपने हाथ का सामान नीचे रख दिया , झुंझलाहट में उसने अपना पर्स भी उतार कर नीचे पटक दिया , और माथे पर हाथ रख कर रुआंसी सी हो गयी । आंसू पोंछ उसने एक गहरी सांस ली, और नीचे पड़े पर्स में वापस चाभी ढूंढी, जो उसे नहीं मिली ।
मैं अपनी खिड़की से उसे परेशान होता देखता रहा । मेरा दिल दुखी हुआ । मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता था ।
उसने अपने फ़ोन में देखा, और टॉर्च जला ली । पर्स में चाभी शायद थी नहीं , मोबाइल रख उसने पूरा पर्स उलट दिया , सामान बाहर गिरने लगा, जैसे उसकी जीवन की परेशानियों का बाहर निकलना ज़रूरी था । चाभी नहीं मिली।
रात का एक बज गया था , वह दीवार से सर टिका कर आंसू बहाती रही । उसका फ़ोन उसके पास बजता रहा । शायद आज वो चाभी के बहाने दिल के सारे दर्द आंसुओं में बहा लेना चाहती थी । मैं उसे रोता हुआ देखता रहा । बगल के दरवाज़े से करुणा दीदी बाहर आयी । उसका रोना जारी था, उन्होंने फ़ोन उठाया और कुछ बात करी । उसे वो अपने घर ले गयी । पर्स का सामान वापस रखते हुए एक 100 का नोट अपनी मुट्ठी में दबा लिया ।
रात अँधेरे में सन्नाटा पसर गया और झींगुर की आवाज़ कानों में पड़ने लगी । मैं हर थोड़ी देर में उसके घर की ओर देख लेता । नींद जैसे उसके रोने के साथ दुबक कर किसी कोने में चुपचाप बैठी हुई थी ।
मेघना के बारे में, मैं रात भर सोचता रहा , कैसे उसके जीवन में वो खोई हुई खुशी वापस ले आऊं?
सूरज की किरणे मेरे माथे पर पड़ी और में उठ कर खिड़की की और दौड़ा , वो ताला तुड़वा रही थी , करुणा दीदी ने टाला तोड़ने वाले को 100 रूपये दिए और वह चला गया । मेघना अपना सामान अंदर ले गयी और किवाड़ बंद कर दिया। करुणा दीदी कुछ बड़बड़ाते हुए अपने घर की ओर बढ़ गयी ।
मैं कुछ देर तक मेघना की खिड़की की ओर देखता रहा । हरी दीवारें और लकड़ी की खिड़की में से हलके पीले परदे झांक रहे थे । अपना ध्यान वहाँ से हटा कर मैं काम पर निकल पड़ा ।
दिन ढल चुका था, रास्ते में वापस आते हुए मैं मेघना को देखने के लिए सेठ की साड़ी की दुकान के बाहर चाय पीने चला गया । अपने पति का कर्ज़ा बेचारी सेठ के यहाँ काम करके चुका रही थी । पति सब छोड़ कर शराब को प्यारा हो गया । सब सहती रही । फ़िर एक दिन जिस बात का डर था वो ही हुआ , पति चल बसा और छोड़ गया जिम्मेदारियां और कुछ वहशी दरिंदे ।
मेघना बुझी सी काम कर रही थी । मैं चाय पीने लगा, और मन ही मन सोचने लगा क्या हमारे कर्म ही ही हमारे जीवन की नियति होते हैं ? चाय खत्म कर मन में उसकी खुशी की दुआ कर मैं वहां से निकल गया ।
रात के एक बजे मेघना आयी , मैं रोज़ाना की तरह खिड़की पर उसे देख रहा था । दरवाज़ा खुला और वह अंदर चली गयी ।
दिन बीत रहे थे । मेघना को देखे बिना मुझे अब चैन नहीं पड़ता था । कुछ अनजानी आत्मीयता सी हो गयी थी । खिड़की पर, कभी चाय, कभी करुणा दीदी से कुछ लेने के बहाने मैं उसे देख लिए करता था ।
माँ अगले महीने आने वाली थी , कह रही थी अब वो यहीं रहा करेंगी । भैया भाभी उनकी सेवा में यूँ तो कमी नहीं छोड़ते थे पर मैं जानता था माँ यहाँ क्यों आना चाहती थी । माँ के लिए मैंने सामान लाने के लिए पैसे जोड़ना शुरू कर दिया था की वो यहाँ आराम से रह सके ।
मैं एक बजे तक मेघना का इंतज़ार करता रहा । समय बीतने लगा और उसकी आने की कोई आहट न सुन कर मुझे बेचैनी होने लगी, मैं अपनी गली के बाहर निकल गया , शॉल ओढ़े मैं सेठ की दुकान की ओर चल पड़ा । चहुँ ओर देखता हुआ मैं सेठ की दुकान पर पहुंचा । मेघना मुझे कहीं दिखाई नहीं दी । सेठ की दुकान बंद हो गयी और सेठ भी घर की ओर निकल पड़े । मैंने चाय बनाने वाले सूरज से मेघना के बारे में पूछा तो सूरज बोला, आज तो आयी ही नहीं, सेठ चिल्ला रहे थे ।
सूरज की बातों से मुझे चिंता हुई , मैं भागा, और हांफता हुआ मेघना के दरवाजे की तरफ़ आकर रुका, मेरे सामने एक दम से मेघना का किवाड़ खुला । देखा तो सामने मेघना खड़ी थी । मैं नीचे देखता हुआ साँस ले ही रहा था की मेरी नज़र कोने में पायदान पर पड़ी चाभी पर गयी ।मैंने चाभी उठायी और चाभी की ओर देखता हुआ मैंने मेघना को देखा । मेघना ने मेरे हाथ से चाभी ली और मेरी ओर देखते हुए बोली
“ये तो पुराने ताले की चाभी है , दिखी कैसे नहीं मुझे?” जैसे मैं भी नहीं दिखता आपको मन ही मन मैं सोचने लगा ।
“इतनी रात में आप यहाँ कैसे अरविन्द जी ?”
उसे देख कर मैं सुकून में भर गया और बोला “करुणा दीदी कह रही थी की कुछ परेशानी है जल्दी आजा ।”
वो बाहर आगयी और करुणा दीदी के दरवाज़े की ओर बढ़ने लगी, मैं हड़बड़ा कर बोला “आप रुकिए , मैं जाता हूँ, आप आराम कीजिये, काफ़ी रात हो गयी है ।”
“जी, क्या परेशानी हुई?” मेघना मुझे देखने लगी ।
“वो कुछ नहीं मैंने उन्हें बताया था की माँ कल आ रहीं हैं ।” मैं नज़रें बचाता हुआ बोला ।
“जी ” जैसे मानो वो इंतज़ार कर रही हो की मैं आगे कुछ बोलूँ ।
“जी तो इसलिए ही उन्होंने बोला होगा , माँ के लिए कुछ सामान लेना था ।” मेरी अटपटी बातें सुनकर मेघना अंदर चली गयी, मैंने अपना शॉल संभाला और करुणा दीदी के दरवाज़े पर दस्तक दी, मेघना अपनी खिड़की से कान लगाए खड़ी रही ।
दरवाजा खुला नहीं , मैंने हल्के से दुबारा खटकाया और मैं वापस अपने कमरे की ओर बढ़ गया । जाते हुए मैं सोचने लगा काश के वो चाभी पहले मिल गयी होती । मैंने कमरे में आकर उसकी खिड़की की ओर देखा ।
अगली सुबह मैं माता जी को लेकर आया तो मुझे मेघना सेठ की दुकान की ओर जाते हुए मिली , मुझे देख कर कुछ कहती की मैं झेंप गया और सोचा माफ़ी मांग लेता हूँ ।
“अरविन्द जी, चाभी पहले ढूंढ लेते तो इतनी मेहनत बच जाती ।” उसने हँसी करते हुए कहा ।
“जी ” मैं झेंपते हुए माताजी को देखने लगा , उसने बड़े प्रेम सहित माताजी को नमस्कार किया ।
माँ ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेर दिया । वह चली गयी और माँ कमरे में आकर मुझसे पूछने लगी किस चाभी की बात हो रही थी, कौन थी वो?
माँ को कैसे समझाता की कौन थी, बस मैं इतना जानता था मेरे दिल की चाभी मुझे मिल गयी थी ।